Thursday, August 29, 2019

कश्मीर में हिंदू राज और गज़नी की अपमानजनक हार की कहानी

भारत की तरह ही कश्मीर में भी इस्लाम के आगमन की कहानी इतिहास से पहले मिथकों के रूप में शुरू होती है. ख्वाजा मुहम्मद आज़म दीदामरी नाम के सूफी लेखक ने फारसी में 'वाक़यात-ए-कश्मीर' नाम से 1747 में एक किताब प्रकाशित की जिसकी कहानियां पौराणिक कथाओं की तर्ज पर लिखी गई थीं.
इसमें बताया गया है कि राक्षस जलदेव इस पूरे क्षेत्र को पानी में डुबाए रखता है. इस कहानी का नायक 'काशेफ' है, जिसे वह किसी मारिची का बेटा बताता है. काशेफ महादेव की तपस्या करता है और फिर महादेव के सेवक ब्रह्मा और विष्णु जलदेव का दमन कर काशेफ-सिर के नाम से इस क्षेत्र को रहने लायक बनाते हैं. विद्वान मानते हैं कि यह काशेफ वास्तव में कश्यप ऋषि की कहानी है, जिसमें घालमेल कर उसे जाने-अनजाने मुस्लिम जैसा साबित करने की कोशिश हुई है.
'वाक़यात-ए-कश्मीर' लिखने वाले आज़म के बेटे बेदिया-उद-दीन इस मिथकीय कहानी को और भी दूसरे स्तर पर लेकर चले गए. उन्होंने तो इसे सीधे आदम की कहानी से जोड़ दिया.
उसके मुताबिक कश्मीर में शुरू से लेकर 1100 साल तक मुसलमानों का शासन था जिसे हरिनंद नाम के एक हिंदू राजा ने जीत लिया. उसके मुताबिक कश्मीर की जनता को इबादत करना स्वयं हजरत मूसा ने सिखाया. उसके मुताबिक मूसा की मौत भी कश्मीर में ही हुई और उनका मकबरा भी वहीं है.
दरअसल, बेदिया-उद-दीन ने यह सब संभवतः शेख़ नूरुद्दीन वली (जिन्हें नुंद ऋषि भी कहा जाता है) के 'नूरनामा' नाम से कश्मीरी भाषा में लिखे गए कश्मीर के इतिहास पर आधारित करके लिख दिया. बहरहाल, इतिहासकारों ने चेरामन पेरूमल की कहानी की तरह इन कहानियों को भी कोई महत्व नहीं दिया है.
पृथ्वीनाथ कौल बामज़ई एक प्रसिद्ध कश्मीरी इतिहासकार हुए हैं. कहा जाता है कि उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने उनसे कश्मीर का विस्तृत इतिहास लिखने का अनुरोध किया था.
1962 में प्रकाशित उनकी किताब 'ए हिस्ट्री ऑफ कश्मीर' की भूमिका स्वयं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी. तीन खंडों में लिखित 'कल्चर एंड पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ कश्मीर' इस प्रदेश के इतिहास को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत कहा जा सकता है.
बामज़ई के मुताबिक बिन-क़ासिम सिंध विजय के बाद कश्मीर की ओर बढ़ा ज़रूर था, लेकिन उसे कोई विशेष सफलता हाथ नहीं लगी. उसकी अकाल मृत्यु की वजह से उसका कोई दीर्घकालिक शासन भी स्थापित न हो सका. कश्मीर तक पहुंचने की दुर्गम भौगोलिक स्थिति की वजह से भी अरब वहां पहुंच पाने में असमर्थ रहे थे.
अरबों के साथ कश्मीरी हिंदू शासकों का पहला संपर्क कार्कोट राजवंश (625 से 885 ईस्वी) के दौरान हुआ था. मध्य एशिया और अफगानिस्तान के अपने अभियानों के दौरान इस वंश के प्रमुख राजाओं जैसे चंद्रपीड़ और ललितादित्य का सामना अरबों से हुआ और पहली बार उनका परिचय इस्लाम नाम के इस नए धर्म से हुआ.
अरबों से उन्हें इतना खतरा महसूस हुआ कि ललितादित्य ने चीन के सम्राट के पास अपना राजदूत भेजकर मदद मांगी थी और अरबों के खिलाफ एक सैन्य गठबंधन बनाने का अनुरोध किया था.
कश्मीर की दुरूह भौगोलिक स्थिति की वजह से वहां किसी तरह का बाहरी घुसपैठ आसान नहीं था. इसके अलावा कश्मीर के राजा भी अपनी सीमाओं को पूरी तरह बंद रखते थे और बाहरी संपर्क को हतोत्साहित करते थे.
1017 में भारत की यात्रा करने वाले अल बरूनी ने इस बारे में बहुत ही शिकायती लहजे में लिखा है- 'कश्मीरी राजा खास तौर पर अपने राज्य के प्राकृतिक संसाधनों के बारे में बहुत चिंतित रहते हैं. इसलिए कश्मीर तक पहुंचने वाले हर प्रवेश-मार्ग और सड़कों पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए वे बहुत सावधानी बरतते हैं."
"इस वजह से उनके साथ किसी भी तरह का व्यापार करना भी बहुत मुश्किल है. वे किसी ऐसे हिंदू को भी अपने राज्य में नहीं घुसने देते जिन्हें वे व्यक्तिगत रूप से जानते न हों."
ध्यान रहे कि अल बरूनी का काल महमूद ग़ज़नी का काल भी है. भारत पर किए गए ग़ज़नी के कई आक्रमणों से हम परिचित हैं. ग़ज़नी से करीब सौ साल पहले काबुल में लल्लिया नाम के एक ब्राह्मण मंत्री ने अपनी राजशाही स्थापित की थी जिसे इतिहासकार 'हिंदू शाही' कहते हैं. उसने कश्मीर के हिंदू राजाओं के साथ गहरे राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंध कायम किए थे.
ग़ज़नी ने जब उत्तर भारत पर हमला करने की ठानी तो उसका पहला निशाना यही साम्राज्य बना. उस समय काबुल का राजा था जयपाल. जयपाल ने कश्मीर के राजा से मदद मांगी. मदद मिली भी, लेकिन वह ग़ज़नी के हाथों पराजित हुआ. पराजित होने के बाद भी जयपाल के बेटे आनंदपाल और पोते त्रिलोचनपाल ने ग़ज़नी के खिलाफ लड़ाई जारी रखी.
उत्पाल वंश के राजा हर्षदेव या हर्ष ने 1089 से 1111 (कुछ विद्वानों के अनुसार 1038-1089) तक कश्मीर पर शासन किया. उसके बारे में माना जाता है कि वह इस्लाम की सीखों से प्रभावित हो गया और इस कदर प्रभावित हो गया कि न केवल उसने खुद मूर्तिपूजा छोड़ दी, बल्कि कश्मीर में मौजूद मूर्तियों, हिंदू मंदिरों और बौद्ध मंदिरों को भी ध्वस्त करने लगा.
इस काम के लिए उसने 'देवोत्पतन नायक' नाम से एक विशेष पद का प्रावधान तक किया था. हर्ष ने अपनी सेना में तुरुष्क (तुर्क) सेनानायकों तक को नियुक्त किया था. 'राजतरंगिणी' के लेखक कल्हण उसके समकालीन थे. कल्हण के पिता चंपक को हर्ष का महामंत्री भी बताया जाता है. कल्हण ने मूर्तिभंजक हर्ष को अपमानजनक अंदाज में 'तुरुष्क' यानी 'तुर्क' की निंदात्मक उपाधि दी है.
1277 के आस-पास वेनिस के यात्री मार्को पोलो ने कश्मीर में मुसलमानों की मौजूदगी बताई है. इतिहासकारों का मत है उस दौरान कश्मीर के बाहरी हिस्सों में और सिंधु नदी के आस-पास बसे दराद जनजातियों के लोग बड़ी संख्या में धर्म-परिवर्तन कर इस्लाम स्वीकार कर रहे थे.
कश्मीर में इस्लाम का प्रचार तेजी से बढ़ रहा था और लोग इसे बड़ी संख्या में अपना रहे थे. इसका कारण था कि वहां की जनता वहां के राजाओं और सामंतों के आपसी झगड़े में पिस रही थी. खासकर किसानों पर दोहरी मार पड़ रही थी.
एक तो उसे अपनी ज़मीन से कुछ भी उपज नहीं मिल पा रही थी, दूसरे एक-के-बाद-एक प्राकृतिक आपदाएं जैसे- सूखा, भूकंप, बाढ़ और आगलगी ने उनके जीवन को दुःख और निराशा से भर दिया था.
ठीक इसी दौर में उनका संपर्क मुस्लिम सैनिकों और सूफी धर्म-प्रचारकों से होना शुरू हुआ. इस्लाम एक ऐसा नया विचार था, जो उनके मन में विश्वास और आशा का संचार कर पा रहा था. इस्लाम उन्हें सदियों पुराने शोषणकारी कर्मकांडों से भी निजात दिला रहा था. इसे हाथों-हाथ लिया गया.
त्रिलोचनपाल को तत्कालीन कश्मीर के राजा संग्रामराजा (1003-1028) से मदद भी मिली, लेकिन वह अपना साम्राज्य बचा न सका. 12वीं सदी में 'राजतरंगिणी' के नाम से कश्मीर का प्रसिद्ध इतिहास लिखने वाले कल्हण ने इस महान साम्राज्य के पतन पर बहुत दुःख जताया है.
ग़ज़नी ने इसके बाद आज के हिमाचल का हिस्सा कांगड़ा भी जीत लिया, लेकिन कश्मीर का स्वतंत्र हिंदू साम्राज्य उसकी आंख का कांटा बना रहा. 1015 में उसने पहली बार तोसा-मैदान दर्रे के रास्ते कश्मीर पर हमला किया, लेकिन दुर्गम भौगोलिक परिस्थिति और कश्मीरियों के जबरदस्त प्रतिरोध की वजह से उसे बहुत अपमान के साथ वापस लौटना पड़ा.
यह भारत में किसी युद्ध में उसके पीछे हटने का पहला मौका था. वापसी में उसकी सेना रास्ता भी भटक गई और घाटी में आए बाढ़ में फंस गई. अपमान के साथ-साथ ग़ज़नी का नुकसान भी बहुत हुआ.
छह साल बाद 1021 में अपने खोए हुए सम्मान को अर्जित करने के लिए ग़ज़नी से फिर से उसी रास्ते कश्मीर पर हमला किया. लगातार एक महीने तक उसने जबरदस्त प्रयास किया, लेकिन लौहकोट की किलाबंदी को वह भेद न सका. घाटी में बर्फबारी शुरू होने वाली थी और ग़ज़नी को लग गया कि इस बार उसकी सेना का हाल पिछली बार से भी बुरा होनेवाला है.
वह कश्मीर की अजेय स्थिति को भांप चुका था. दोबारा अपमान का घूंट पीते हुए उसे फिर से वापस लौटना पड़ा. उसके बाद उसने कश्मीर के बारे में सोचना भी बंद कर दिया.

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