Friday, June 28, 2019

प्रधानमंत्री की देखादेखी उनके कई मंत्री और भाजपा

जर्मनी में एक अलग ही तरह की रिसर्च सामने आई है. क्रिश्चियन शैफ़लर का कहना है कि जर्मनी में नई पीढ़ी के बच्चों का शरीर लगातार कमज़ोर होता जा रहा है. ख़ास तौर से कुहनियां बहुत पतली और नाज़ुक हो रही हैं. पहले तो इसे वंशानुगत माना गया. फिर इसकी वजह कुपोषण समझी गई. लेकिन जर्मनी में इसकी गुंजाइश नहीं है. अब इसकी वजह आधुनिक जीवनशैली मानी जा रही है.
जब बच्चे ज़्यादा शारीरिक मेहनत का काम करते हैं तो उनकी मांसपेशियां और हड्डियों के नए ऊतक बनते हैं. जिससे शरीर मज़बूत होता रहता है. लेकिन नई लाइफ़-स्टाइल में बच्चे कसरत करते ही नहीं जिसका असर उनके शरीर पर पड़ रहा है.
इंसान के विकास का इतिहास बताता है कि वो एक दिन में 30 किलोमीटर तक पैदल चल सकता है. लेकिन आज के बच्चे 30 मीटर भी पैदल नहीं चलना चाहते. हमारे शरीर में ये बदलाव हो सकता है बहुत लंबे समय से चल रहे हों, बस इनका अदाज़ा हमें मौजूदा समय में हुआ है.
जबड़े को देखकर इंसान के खान-पान का पता लगाया जा सकता है. क्योंकि जबड़े पर जिस तरह का दबाव पड़ता है उसी अनुपात में नई मांसपेशियां और हड्डी के ऊतक बनने लगते हैं.
आज के दौर के बच्चों के जबड़े भी मज़बूत नहीं हैं. क्योंकि आज ऐसे खाने उपलब्ध हैं जिन्हें बहुत ज़्यादा चबाने की ज़रूरत नहीं है. और खाना भी वो इतना गला हुआ खाते हैं कि जबड़े पर ज़ोर ही नहीं पड़ता. बहुत से लोग तो लिक्विड डाइट ही लेते हैं. इसीलिए आज दांतों की समस्या भी आम होती जा रही है.
सिक्के के दो पहलू की तरह आधुनिक जीवनशैली के फ़ायदे और नुक़सान दोनों हैं. ये हमें तय करना है कि हमारा भला किसमें है.
आधुनिक जीवनशैली ने हमारी ज़िंदगी को बहुत आसान और तरक्क़ी वाला बनाया है. लेकिन अपनी ग़लत आदतों की वजह से हम ख़ुद अपने लिए मुश्किल खड़ी कर रहे हैं. अब फ़ैसला आपको करना है.
चव्वालीस साल यानी क़रीब साढ़े चार दशक पुराने आपातकाल के काले कालखंड को हर साल 25-26 जून को याद किया जाता है. लेकिन पिछले पांच वर्षों से उस दौर को कुछ ज्यादा ही याद किया जा रहा है. सिर्फ़ सालगिरह पर ही नहीं बल्कि हर मौक़े-बेमौक़े याद किया जाता है.
आपातकाल के बाद चार दशकों के दौरान देश में सात ग़ैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री हुए हैं, जिनमें से दो-तीन के अलावा शेष सभी आपातकाल के दौरान जेल में रहे हैं. जेल में रहने वालों में अटल बिहारी वाजपेयी का नाम भी शामिल किया जा सकता है, हालांकि उन्हें कुछ ही दिन जेल में रहना पड़ा था. बाक़ी समय उन्होंने पैरोल पर रहते हुए बिताया था.
लेकिन उनमें से किसी ने कभी भी आपातकाल को इतना ज्यादा और इतने कर्कश तरीक़े से याद नहीं किया, जितना कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं. हालांकि मोदी को 2002 की गुजरात की वह 'राज्य प्रायोजित सांप्रदायिक हिंसा' कभी याद नहीं आती जो उनके ही मुख्यमंत्रित्व काल में हुई थी.
राजनीतिक विमर्श में आपातकाल मोदी का प्रिय विषय रहता है, इसलिए वे आपातकाल को सिर्फ़ 25-26 जून को ही नहीं बल्कि अक्सर याद करते रहते हैं. यह और बात है कि मोदी आपातकाल के दौरान एक दिन के लिए भी जेल तो दूर, पुलिस थाने तक भी नहीं ले जाए गए थे.
जेल के बाहर भूमिगत रहकर उन्होंने आपातकाल विरोधी संघर्ष में कोई हिस्सेदारी की हो, इसकी भी कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं मिलती. जबकि उस दौरान भूमिगत रहे जार्ज फर्नांडीज, कर्पूरी ठाकुर जैसे दिग्गजों के अलावा समाजवादी नेता लाडली मोहन निगम और द हिंदू अख़बार के तत्कालीन प्रबंध संपादक सीजीके रेड्डी जैसे कम मशहूर लोगों की गतिविधियां भी जगज़ाहिर हो चुकी हैं.
आपातकाल के दौरान भूमिगत रहे विपक्षी राजनीतिक कर्मियों की गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी हुए थे, लेकिन मोदी की गिरफ्तारी का कोई वारंट भी रिकॉर्ड पर नहीं है.
आपातकाल लागू होने से पहले गुजरात में छात्रों के नवनिर्माण आंदोलन और बिहार से शुरू हुए जेपी आंदोलन के संदर्भ में भी मोदी के समकालीन या उनसे वरिष्ठ रहे रामविलास पासवान, शरद यादव, शिवानंद तिवारी, लालू प्रसाद, अरुण जेटली, मोहन सिंह, अख्तर हुसैन, नीतीश कुमार, सुशील मोदी, मुख्तार अनीस, मोहन प्रकाश, चंचल, राजकुमार जैन, लालमुनि चौबे, रामबहादुर राय और गुजरात के ही प्रकाश बह्मभट्ट, हरिन पाठक, नलिन भट्ट आदि नेताओं के नाम चर्चा में रहते हैं, लेकिन इनमें मोदी का नाम कहीं नहीं आता.
कहा जा सकता है कि मोदी संघ और जनसंघ के सामान्य कार्यकर्ता के रूप में आपातकाल के एक सामान्य दर्शक रहे हैं. हालांकि पिछले दिनों प्रदर्शित होकर फ्लॉप रही उनकी बॉयोपिक 'पीएम नरेंद्र मोदी' में ज़रूर उन्हें आपातकाल के भूमिगत महानायक के तौर पर पेश करने की फूहड़ और हास्यास्पद कोशिश की गई.
एक राजनीतिक कार्यकर्ता होते हुए भी आपातकाल से अछूते रहने के बावजूद अगर मोदी मौक़े-बेमौक़े आपातकाल को चीख़-चीख़कर याद करते हुए कांग्रेस को कोसते हैं तो इसकी वजह उनका अपना यह 'आपातकालीन' अपराध बोध ही हो सकता है कि वे आपातकाल के दौर में कोई सक्रिय भूमिका निभाते हुए जेल क्यों नहीं जा सके!
आपातकाल के नाम पर उनकी चीख़-चिल्लाहट को उनकी प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी नाकामियों को छुपाने की कोशिश के रूप में भी देखा जा सकता है. यह भी कहा जा सकता है कि मोदी कांग्रेस को कोसने के लिए गाहे-बगाहे आपातकाल का ज़िक्र करके अपने उन कार्यों पर नैतिकता का पर्दा डालना चाहते हैं, जिनकी तुलना आपातकालीन कारनामों से की जाती है. मसलन संसद, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, सतर्कता आयोग, सूचना आयोग, रिज़र्व बैंक जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाओं की 'स्वायत्ता का अपहरण.'

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